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गीता के अनुसार अभ्यासी भक्त की अवस्थाओं का संक्षेप में स्पष्ट कीजिए।

परिचय

भगवद्गीता में भक्ति को मोक्ष प्राप्ति का एक सरल, सुंदर और प्रभावशाली मार्ग बताया गया है। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को भक्तियोग के विभिन्न रूपों की व्याख्या करते हुए ‘अभ्यासी भक्त’ की अवस्थाओं को भी स्पष्ट किया है। अभ्यासी भक्त वह होता है जो नियमित अभ्यास (साधना) के द्वारा ईश्वर की भक्ति में आगे बढ़ता है।

अभ्यासी भक्त कौन होता है?

वह व्यक्ति जो निरंतर अभ्यास और प्रयास द्वारा अपने मन को ईश्वर में स्थिर करता है, उसे अभ्यासी भक्त कहा जाता है। यह व्यक्ति आरंभिक अवस्था में होता है, जहाँ वह पूर्णतः समर्पित नहीं होता, परंतु लक्ष्य की ओर अग्रसर होता है।

गीता में वर्णित अवस्थाएँ (अध्याय 12)

भगवान श्रीकृष्ण गीता के 12वें अध्याय में बताते हैं कि यदि कोई भक्त एकदम परमभक्ति में स्थिर नहीं हो सकता, तो वह अभ्यास से ईश्वर में मन लगाना शुरू करे। यह अभ्यासी भक्त की पहली अवस्था है।

अभ्यासी भक्त की अवस्थाएँ

  1. मन का अभ्यास: सबसे पहले मन को ईश्वर में लगाना सीखना होता है। यह कठिन हो सकता है, इसलिए नियमित ध्यान और जप से अभ्यास करना चाहिए।
  2. नियमित साधना: प्रतिदिन पूजा, ध्यान, जप, और सत्संग के माध्यम से भक्त की स्थिति सुदृढ़ होती है।
  3. फल की अपेक्षा का त्याग: धीरे-धीरे भक्त निष्काम भाव से भक्ति करना सीखता है।
  4. स्वभाव में परिवर्तन: अहंकार, द्वेष, राग, द्वंद्व आदि कम होने लगते हैं।
  5. भक्ति में स्थिरता: लगातार अभ्यास से मन स्थिर होता है और श्रद्धा गहराई से स्थापित होती है।

गीता के अनुसार अन्य विकल्प

अभ्यासी भक्त के लक्षण

अभ्यास से सिद्धि की ओर

श्रीकृष्ण कहते हैं – “अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।” अर्थात् अभ्यास और वैराग्य से मन को ईश्वर में लगाया जा सकता है।

निष्कर्ष

गीता में अभ्यासी भक्त की अवस्थाओं को समझना और अपनाना हर साधक के लिए उपयोगी है। अभ्यास से मन स्थिर होता है, स्वभाव में परिवर्तन आता है और धीरे-धीरे भक्त पूर्ण समर्पण की ओर बढ़ता है। यही साधना का वास्तविक सौंदर्य है।

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