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गीता के अनुसार पूज्य के स्वरूप पर विस्तृत लेख लिखिए।

परिचय

भगवद्गीता में श्रीकृष्ण ने जीवन के प्रत्येक पक्ष को स्पष्ट रूप से समझाया है। ‘पूज्य’ का अर्थ होता है – जो पूजनीय हो, अर्थात् जिसे आदर, श्रद्धा और समर्पण के साथ पूजा जाए। गीता में पूज्य के स्वरूप की चर्चा करते समय श्रीकृष्ण ने बताया कि ईश्वर ही सर्वपूज्य है, क्योंकि वह सर्वव्यापी, सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान है।

पूज्य का अर्थ और स्वरूप

‘पूज्य’ वह है जो हमारे जीवन का आदर्श हो, जो हमारे मन को प्रेरणा दे और जिसका अनुसरण कर हम आत्मिक उन्नति कर सकें। गीता में पूज्य के रूप में भगवान स्वयं को प्रस्तुत करते हैं, क्योंकि वे समस्त सृष्टि के कारण, पालक और संहारक हैं।

भगवान का पूज्य स्वरूप

गीता के श्लोकों में पूज्य स्वरूप की पुष्टि

“मत्तः परतरं नान्यत् किंचित् अस्ति धनञ्जय।
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव॥”

इस श्लोक में भगवान कहते हैं कि मुझसे ऊपर कोई नहीं है, पूरा ब्रह्मांड मुझमें स्थित है।

पूज्य के अन्य रूप

आधुनिक संदर्भ में पूज्य का महत्व

आज के समय में जब लोग बाहरी चकाचौंध के पीछे भागते हैं, गीता हमें यह सिखाती है कि पूज्य वही है जो हमें सत्य, प्रेम, शांति और आत्मिक विकास की ओर ले जाए। भगवान, गुरु, धर्म और कर्तव्य – ये सब पूज्य के रूप में हमारे जीवन के स्तंभ हैं।

पूज्य की आराधना का उद्देश्य

निष्कर्ष

गीता में पूज्य का स्वरूप केवल मूर्तिपूजा या किसी एक देवता तक सीमित नहीं है, बल्कि वह व्यापक और सार्वभौमिक है। भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं को पूज्य बताते हुए यह भी स्पष्ट किया कि हर प्राणी में ईश्वर का अंश है। अतः सच्ची पूजा वही है जो प्रेम, श्रद्धा, सेवा और समर्पण से की जाए।

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