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गीता के अनुसार भक्ति और ज्ञान की समन्वय की विस्तृत से स्पष्ट कीजिए।

परिचय

भगवद्गीता में भक्ति और ज्ञान दोनों को ही मोक्ष प्राप्ति के मार्ग के रूप में प्रस्तुत किया गया है। श्रीकृष्ण अर्जुन को समझाते हैं कि केवल भक्ति या केवल ज्ञान से नहीं, बल्कि दोनों के समन्वय से ही आत्मिक उन्नति संभव है। यह समन्वय व्यक्ति को ना केवल ईश्वर से जोड़ता है, बल्कि उसे अपने कर्तव्यों के प्रति जागरूक भी बनाता है।

भक्ति और ज्ञान का अर्थ

भक्ति और ज्ञान का परस्पर संबंध

गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है कि सच्चा ज्ञानी वही होता है जो मेरी भक्ति करता है और सच्चा भक्त वही होता है जो ज्ञान प्राप्त करता है। इस प्रकार भक्ति और ज्ञान एक-दूसरे के पूरक हैं।

“भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः।”
– गीता अध्याय 18

अर्थ: मेरी भक्ति के द्वारा ही मुझे तत्त्व से जाना जा सकता है।

ज्ञान से भक्ति का जन्म

भक्ति से ज्ञान की प्राप्ति

समन्वय का महत्व

गीता यह नहीं कहती कि केवल ज्ञानी ही मोक्ष पाएँगे या केवल भक्त ही। श्रीकृष्ण ने कहा कि जो भक्त मुझे प्रेम से पूजता है, मैं उसे भी स्वीकार करता हूँ, और जो मुझे ज्ञान के द्वारा जानता है, वह भी मेरे प्रिय है।

व्यवहारिक जीवन में समन्वय

उदाहरण

गीता में अर्जुन को भगवान ने ज्ञान भी दिया और अंततः उसे भक्ति के मार्ग पर चलने को कहा। यह दोनों का सुंदर समन्वय है।

निष्कर्ष

गीता के अनुसार भक्ति और ज्ञान दोनों आवश्यक हैं। ज्ञान के बिना भक्ति अंधी होती है, और भक्ति के बिना ज्ञान निर्जीव। दोनों के समन्वय से ही मनुष्य सच्चे अर्थों में आत्मज्ञान, शांति और मोक्ष प्राप्त कर सकता है।

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