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गीता के अनुसार लोकव्यवहार पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।

परिचय

भगवद्गीता केवल आध्यात्मिक या धार्मिक ग्रंथ ही नहीं, बल्कि एक व्यावहारिक जीवन-दर्शन भी है। इसमें न केवल आत्मा और परमात्मा की बात होती है, बल्कि दैनिक जीवन और समाज में किस प्रकार आचरण करना चाहिए – इसका भी विस्तृत मार्गदर्शन मिलता है। गीता के अनुसार ‘लोकव्यवहार’ का अर्थ है – समाज में रहते हुए अपने व्यवहार को धर्म, संयम और करुणा से युक्त बनाना।

लोकव्यवहार की परिभाषा

‘लोक’ का अर्थ है – समाज या जनसाधारण, और ‘व्यवहार’ का अर्थ है – आचरण। गीता के अनुसार लोकव्यवहार वह व्यवहार है जो समाज में शांति, सहयोग, नैतिकता और सच्चाई को बनाए रखे।

गीता में लोकव्यवहार के सिद्धांत

श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को दिया गया लोकव्यवहार का संदेश

जब अर्जुन युद्ध छोड़ने का मन बनाता है, तब श्रीकृष्ण उसे समझाते हैं कि – यदि तुम अपने धर्म से पीछे हटोगे, तो समाज तुम्हारी निंदा करेगा। यहाँ श्रीकृष्ण उसे ‘लोक’ के दृष्टिकोण से भी प्रेरित करते हैं।

“यद्यदाचरति श्रेष्ठः तत्तदेवेतरो जनः।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते॥”

इस श्लोक में स्पष्ट है कि समाज श्रेष्ठ पुरुषों के आचरण का अनुसरण करता है। अतः एक जिम्मेदार व्यक्ति का लोकव्यवहार आदर्श होना चाहिए।

लोकव्यवहार और आत्मसंयम

लोक में रहते हुए संयम, क्षमा, शांति, सहिष्णुता, और आत्मनियंत्रण का पालन करना ही गीता के अनुसार श्रेष्ठ लोकव्यवहार है।

लोकव्यवहार के लाभ

आधुनिक संदर्भ में गीता का लोकव्यवहार

आज के युग में जहाँ नैतिकता और सामाजिक मूल्यों में गिरावट हो रही है, वहाँ गीता का लोकव्यवहार हमें ईमानदारी, सेवा, सहयोग और सामाजिक समरसता का मार्ग दिखाता है।

निष्कर्ष

लोकव्यवहार केवल बाहरी दिखावा नहीं, बल्कि आंतरिक शुद्धता और नैतिकता का प्रतिबिंब होना चाहिए। गीता हमें सिखाती है कि व्यक्ति चाहे गृहस्थ हो, नेता हो या योगी – उसका लोकव्यवहार समाज के लिए प्रेरणा का स्रोत होना चाहिए। यही सच्ची गीता की शिक्षा है।

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