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गीता में एकात्ममनस्वभाव पर विस्तार से निबंध लिखिए।

परिचय

भगवद्गीता में जीवन और आत्मा के गूढ़ रहस्यों की व्याख्या की गई है। इनमें एक अत्यंत महत्वपूर्ण विषय है – ‘एकात्ममनस्वभाव’। यह शब्द गीता में उस मानसिक स्थिति को दर्शाता है जिसमें व्यक्ति का मन, बुद्धि और आत्मा – तीनों एक ही लक्ष्य में लीन हो जाते हैं। यह स्थिति आध्यात्मिक साधना और आत्मज्ञान का सर्वोच्च स्तर मानी जाती है।

एकात्ममनस्वभाव का अर्थ

‘एकात्म’ का अर्थ है – आत्मा में एकाग्र होना, ‘मनस्’ का अर्थ है – मन, और ‘स्वभाव’ का अर्थ है – प्रकृति या स्वाभाविक अवस्था। अतः एकात्ममनस्वभाव वह स्थिति है जिसमें मन, बुद्धि और आत्मा पूर्णतः ईश्वर या आत्मा में स्थित हो जाते हैं।

गीता में एकात्ममनस्वभाव की व्याख्या

भगवद्गीता के अध्याय 6 (ध्यान योग) में श्रीकृष्ण एकाग्रता और ध्यान की अवस्था का वर्णन करते हुए बताते हैं कि एक सच्चा योगी वह है जो अपने मन को नियंत्रण में रखकर आत्मा में स्थिर करता है।

“यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते।
नि:स्पृहः सर्वकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा।।”

इस श्लोक में ‘विनियत चित्त’ और ‘आत्मन्येवावतिष्ठते’ का अर्थ ही है – एकात्ममनस्वभाव।

एकात्ममनस्वभाव के लक्षण

एकात्ममनस्वभाव और ध्यान योग

ध्यान योग ही वह मार्ग है जिससे साधक एकात्ममनस्वभाव की अवस्था तक पहुँचता है। यह अवस्था तभी आती है जब साधक नियमित अभ्यास, संयम और वैराग्य के साथ साधना करता है।

एकात्ममनस्वभाव का फल

आधुनिक जीवन में एकात्ममनस्वभाव की आवश्यकता

आज का मनुष्य तनाव, भटकाव और असंतुलन से ग्रस्त है। ऐसे समय में गीता की एकात्ममनस्वभाव की शिक्षा उसे मानसिक शांति, आत्मबल और जीवन की दिशा प्रदान कर सकती है। योग और ध्यान के माध्यम से इस स्थिति को पाया जा सकता है।

उदाहरण

महात्मा बुद्ध, श्रीरामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद जैसे महापुरुषों ने इस अवस्था को प्राप्त किया था। उन्होंने अपने मन और आत्मा को एक केंद्र में स्थिर कर दिया था।

निष्कर्ष

एकात्ममनस्वभाव केवल योगियों के लिए नहीं, बल्कि हर उस व्यक्ति के लिए आवश्यक है जो आत्मिक उन्नति चाहता है। भगवद्गीता में यह स्पष्ट किया गया है कि मन, आत्मा और बुद्धि का समन्वय ही जीवन की पूर्णता की ओर ले जाता है। यह स्थिति ही व्यक्ति को स्थायी सुख, शांति और मोक्ष की ओर अग्रसर करती है।

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