परिचय
भगवद्गीता में ‘ईश्वर की सत्तता’ अर्थात ईश्वर का अस्तित्व, उसकी उपस्थिति, शक्ति और नियंत्रण का सुंदर वर्णन मिलता है। श्रीकृष्ण ने गीता में यह स्पष्ट किया है कि ईश्वर इस संपूर्ण सृष्टि में व्याप्त है, उसे नियंत्रित करता है, और प्रत्येक जीव में उसकी चेतना विद्यमान है। इस लेख में हम गीता के अनुसार ईश्वर की सत्तता पर संक्षेप में विचार करेंगे।
ईश्वर की सत्तता का अर्थ
‘सत्तता’ का अर्थ होता है – स्थायित्व, सत्ता, या अस्तित्व। गीता के अनुसार ईश्वर नित्य, अविनाशी और अपरिवर्तनीय सत्ता है। वह न उत्पन्न होता है, न समाप्त होता है, बल्कि सदा से है और सदा रहेगा।
गीता में ईश्वर की उपस्थिति
- भगवान श्रीकृष्ण स्वयं कहते हैं – “मैं सभी प्राणियों के हृदय में स्थित हूँ।”
- “मैं जल में रस हूँ, अग्नि में तेज हूँ, चंद्रमा में शीतलता हूँ।”
- ईश्वर न केवल जगत के रचयिता हैं, बल्कि वह जगत में व्याप्त भी हैं।
ईश्वर की सर्वव्यापकता
गीता के अनुसार ईश्वर केवल किसी एक स्थान पर नहीं, बल्कि संपूर्ण ब्रह्मांड में व्याप्त हैं। वह प्रत्येक वस्तु, जीव और विचार में समाहित हैं।
“मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना।”
– गीता अध्याय 9
ईश्वर की नियंता शक्ति
- ईश्वर ही कर्मों का फल प्रदान करते हैं।
- वह जीव के अंदर स्थित होकर उसे प्रेरित करते हैं।
- वे ही जन्म और मृत्यु के चक्र को नियंत्रित करते हैं।
ईश्वर और आत्मा का संबंध
गीता में आत्मा को ईश्वर का अंश बताया गया है। आत्मा शरीर में निवास करती है, परंतु वह स्वयं ईश्वर की चेतना से उत्पन्न होती है।
विराट रूप में सत्तता
गीता के अध्याय 11 में श्रीकृष्ण ने जब अर्जुन को अपना विराट रूप दिखाया, तो उसमें ईश्वर की सत्तता का भव्य प्रदर्शन हुआ – जिसमें समय, प्रकृति, तत्व और समस्त प्राणी समाहित थे।
मानव जीवन में सत्तता का महत्व
- ईश्वर की सत्तता को समझकर व्यक्ति अहंकार से मुक्त होता है।
- वह अपने कर्मों में ईश्वर को समर्पित करता है।
- भक्ति, सेवा और निष्काम कर्म उसके जीवन का आधार बनते हैं।
निष्कर्ष
गीता में ईश्वर की सत्तता को अत्यंत व्यापक, गूढ़ और सर्वव्यापी रूप में प्रस्तुत किया गया है। इसे समझकर ही मनुष्य सच्चे अर्थों में धर्म, कर्म और मोक्ष की दिशा में अग्रसर हो सकता है।
