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योग की परिभाषा पर विस्तृत लेख लिखिए।

परिचय

‘योग’ शब्द भारतीय दर्शन और आध्यात्मिकता का मूल स्तंभ है। भगवद्गीता में योग को जीवन जीने की एक समग्र और संतुलित पद्धति के रूप में प्रस्तुत किया गया है। योग न केवल शरीर की क्रियाओं को संतुलित करता है, बल्कि मन, आत्मा और बुद्धि को भी शुद्ध करता है। इस लेख में हम योग की परिभाषा, उसके प्रकार और भगवद्गीता में उसके महत्व पर विस्तार से चर्चा करेंगे।

योग की शाब्दिक परिभाषा

‘योग’ संस्कृत धातु ‘युज’ से बना है, जिसका अर्थ है – जोड़ना या एकीकरण करना। अतः योग का तात्पर्य है – आत्मा और परमात्मा का मिलन, मन और बुद्धि का संयम, तथा जीवन के विभिन्न पक्षों का संतुलन।

भगवद्गीता में योग की परिभाषा

योग के प्रकार (गीता के अनुसार)

योग का उद्देश्य

योगी की विशेषताएँ

आधुनिक जीवन में योग की आवश्यकता

आज के युग में मानसिक तनाव, शारीरिक व्याधियाँ और आध्यात्मिक भटकाव बढ़ता जा रहा है। ऐसे में योग न केवल एक साधना पद्धति है, बल्कि जीवनशैली भी है। यह व्यक्ति को समग्र रूप से स्वस्थ, संतुलित और आध्यात्मिक बनाता है।

उदाहरण

महात्मा गांधी, स्वामी विवेकानंद, पतंजलि जैसे महापुरुषों ने योग को जीवन का हिस्सा बनाया और सम्पूर्ण समाज को प्रेरणा दी।

निष्कर्ष

योग केवल आसनों या व्यायाम तक सीमित नहीं है, बल्कि यह एक जीवन दर्शन है जो आत्मा को परमात्मा से जोड़ता है। भगवद्गीता में योग को कर्म, ज्ञान और भक्ति के माध्यम से समझाया गया है। योग का अभ्यास हमें जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सफलता, शांति और मुक्ति की ओर ले जाता है।

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