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कर्मयोगी के वे लक्षण जो अर्जुन अनुसार योग्य व्यक्ति बनाते हैं, लिखिए।

परिचय

भगवद्गीता में कर्मयोग एक अत्यंत महत्वपूर्ण दर्शन है। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को जो उपदेश दिए, उनमें कर्मयोग का विशेष स्थान है। कर्मयोग का अर्थ है – बिना फल की चिंता किए अपना कर्तव्य निभाना। गीता में ऐसा कर्मयोगी व्यक्ति महान माना गया है जो आत्मज्ञान, संतुलन और निष्काम कर्म में स्थित होता है।

कर्मयोगी की परिभाषा

कर्मयोगी वह होता है जो अपने कर्म को भगवान की सेवा मानकर करता है, उसमें कोई अहंकार या स्वार्थ नहीं होता। वह संसार में रहकर भी संसार में लिप्त नहीं होता।

अर्जुन के अनुसार कर्मयोगी के लक्षण

श्रीकृष्ण का कर्मयोगी के बारे में मत

कर्मयोगी का व्यवहार

आधुनिक संदर्भ में कर्मयोगी

आज के युग में कर्मयोगी वह है जो अपने काम को निष्ठा, ईमानदारी और सेवा भाव से करता है। वह समाज, राष्ट्र और मानवता के कल्याण को प्राथमिकता देता है। वह प्रतियोगिता और तुलना की बजाय आत्मनिर्भरता और संतुलन को महत्व देता है।

कर्मयोगी बनने के लाभ

निष्कर्ष

गीता में कर्मयोगी का स्वरूप अत्यंत आदर्श और प्रेरणादायक है। अर्जुन के अनुसार, ऐसा व्यक्ति ही सच्चे अर्थों में योग्य होता है। आज के समय में भी यदि हम कर्मयोग को अपने जीवन में अपनाएँ, तो हम न केवल सफल हो सकते हैं, बल्कि संतुलित, शांत और धर्मपरायण जीवन भी जी सकते हैं।

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