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गीता में आत्मनियंत्रण की आवश्यकता को स्पष्ट कीजिए।

परिचय

भगवद्गीता केवल एक धार्मिक ग्रंथ नहीं, बल्कि जीवन जीने की श्रेष्ठ कला सिखाने वाला दर्शन है। इसमें आत्मनियंत्रण या आत्मसंयम को आध्यात्मिक, नैतिक और सामाजिक उन्नति के लिए अत्यंत आवश्यक बताया गया है। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को युद्ध भूमि में आत्मनियंत्रण की आवश्यकता समझाई, जो आज के हर मानव के लिए भी उतनी ही प्रासंगिक है।

आत्मनियंत्रण का अर्थ

‘आत्मनियंत्रण’ का तात्पर्य है – अपनी इंद्रियों, मन, वाणी और कर्म को नियंत्रण में रखना। यह केवल इच्छाओं को दबाना नहीं, बल्कि उन्हें सही दिशा में मोड़ना है।

गीता में आत्मनियंत्रण की महिमा

श्रीकृष्ण गीता में स्पष्ट करते हैं कि जो व्यक्ति इंद्रियों और मन को जीत लेता है, वही सच्चा योगी और ज्ञानी होता है।

“इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते। एषः कर्मेन्द्रियैः कर्म योनं समरभते।”

इस श्लोक के अनुसार इंद्रियाँ और मन ही विकारों के कारण हैं, और इनका नियंत्रण ही आत्मनियंत्रण है।

आत्मनियंत्रण क्यों आवश्यक है?

गीता में आत्मनियंत्रण से जुड़े उपदेश

व्यक्तित्व विकास में आत्मनियंत्रण की भूमिका

आधुनिक जीवन में आत्मनियंत्रण की आवश्यकता

आज की भौतिकतावादी और तनावपूर्ण दुनिया में आत्मनियंत्रण सबसे बड़ी आवश्यकता बन गई है। सोशल मीडिया, विज्ञापन और उपभोक्तावादी सोच से घिरे मनुष्य को अपने मन और इच्छाओं को नियंत्रित करना आना चाहिए।

कैसे प्राप्त करें आत्मनियंत्रण?

निष्कर्ष

गीता का आत्मनियंत्रण का सिद्धांत केवल साधुओं या योगियों के लिए नहीं, बल्कि प्रत्येक गृहस्थ और विद्यार्थी के लिए भी है। यदि हम अपने मन, वाणी और कर्म को संयमित कर सकें, तो जीवन में शांति, सफलता और संतोष सुनिश्चित हैं।

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