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गीता में कर्मसंन्यास के अभिप्राय पर विस्तार से लेख लिखिए।

परिचय

भगवद्गीता में कर्मसंन्यास एक गूढ़ और महत्वपूर्ण विषय है। यह विषय उस स्थिति को दर्शाता है जब व्यक्ति कर्मों से मुक्त होकर आत्मज्ञान की ओर अग्रसर होता है। हालांकि गीता केवल बाहरी संन्यास को महत्त्व नहीं देती, बल्कि अंतर्मन के संन्यास को अधिक मूल्यवान मानती है। इस लेख में हम गीता में वर्णित कर्मसंन्यास के अर्थ, महत्व और व्यावहारिक उपयोग पर विस्तार से चर्चा करेंगे।

कर्मसंन्यास का अर्थ

‘कर्मसंन्यास’ का अर्थ है – कर्मों का त्याग करना। गीता के अनुसार इसका आशय यह नहीं कि व्यक्ति संसार से भाग जाए, बल्कि वह अपने कर्मों में फल की इच्छा का त्याग करे और अहंकार से मुक्त होकर उन्हें संपन्न करे। यह आंतरिक त्याग की स्थिति है।

गीता में कर्मसंन्यास और कर्मयोग

कर्मसंन्यास की विशेषताएँ

अर्जुन की शंका और श्रीकृष्ण का उत्तर

अर्जुन गीता में पूछते हैं कि क्या संन्यास लेना श्रेष्ठ है या कर्म करना। श्रीकृष्ण स्पष्ट करते हैं कि कर्मों को करते हुए भी यदि मनुष्य अनासक्त हो, तो वह श्रेष्ठ है। यह कर्मसंन्यास का वास्तविक रूप है।

कर्मसंन्यास और आत्मसंयम

कर्मसंन्यास आत्मसंयम से जुड़ा हुआ है। जब व्यक्ति इंद्रियों, इच्छाओं और मन को संयमित कर लेता है, तब वह कर्म करते हुए भी संन्यासी बन जाता है।

आधुनिक जीवन में कर्मसंन्यास की प्रासंगिकता

आज के जीवन में कर्मसंन्यास का अर्थ यह नहीं कि व्यक्ति घर-परिवार छोड़ दे। बल्कि उसे अपने कर्तव्यों को ईमानदारी, निष्कामता और निष्ठा से पूरा करना चाहिए। यही कर्मसंन्यास है।

उदाहरण

निष्कर्ष

गीता में कर्मसंन्यास केवल बाह्य त्याग नहीं, बल्कि आंतरिक शुद्धता का प्रतीक है। श्रीकृष्ण के अनुसार कर्म करना आवश्यक है, लेकिन उसमें आसक्ति न हो – यही सच्चा कर्मसंन्यास है। यदि हम इस सिद्धांत को अपने जीवन में अपनाएँ, तो हम न केवल सफल होंगे, बल्कि शांतिपूर्ण और धर्ममय जीवन जी पाएंगे।

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