पद्यांश
हे अग्निशिखा, ज्वालामुखी गगन का अप्सर,
जो ऊपर लिखा जा चुका, कह दे उप्सर–उप्सर,
अशिखित रक्त वह खुले अक्षरों लिखे,
जो नीरव हो गईं व्यथाएँ, वो चीखें।
सिर पत्थर हो चले हैं देश–देश–देश,
उठे जो बोल, बने वे शूल–शूल–शूल,
बोल–कुम्भ–कुम्भ–कुम्भ बना धूल–धूल–धूल,
अवज्ञा ममता तनु उठा हो हार–हार।
संदर्भ
यह पद्यांश क्रांतिकारी और प्रगतिशील चेतना को दर्शाता है। इसमें कवि ने सामाजिक विद्रोह, मौन के प्रतिरोध और दमनकारी व्यवस्था के विरुद्ध संघर्ष की भावना को व्यक्त किया है। यह नई कविता आंदोलन की एक सशक्त आवाज है।
प्रसंग
इस कविता का समय वह है जब समाज दमन, अन्याय और चुप्पी के दलदल में फंसा था। कवि इस घुटन से बाहर निकलने का आह्वान करता है। अग्निशिखा और ज्वालामुखी जैसे प्रतीक शक्ति और विद्रोह का प्रतीक हैं।
व्याख्या
“हे अग्निशिखा, ज्वालामुखी गगन का अप्सर” – यहाँ कवि शक्ति और क्रांति को अग्निशिखा के रूप में संबोधित कर रहा है। यह शक्ति दैवी और प्रचंड है, जो शांति को भंग कर परिवर्तन ला सकती है।
“जो ऊपर लिखा जा चुका, कह दे उप्सर–उप्सर” – यह पंक्ति समाज द्वारा थोपी गई परंपराओं और नियमों को अस्वीकार करने का संकेत देती है। अब समय आ गया है कि जो पूर्व में लिखा गया, उसे मिटाकर नए विचार स्थापित किए जाएँ।
“अशिखित रक्त वह खुले अक्षरों लिखे, जो नीरव हो गईं व्यथाएँ, वो चीखें।” – यहाँ कवि कहता है कि जिनका खून बहा, उन्होंने इतिहास नहीं लिखा, पर अब वे पीड़ा की भाषा में चीखें बनकर उभर रही हैं। मौन अब विद्रोह में बदल रहा है।
“सिर पत्थर हो चले हैं देश–देश–देश” – यह पंक्ति दर्शाती है कि पूरे देश के लोग संवेदनहीन हो गए हैं। उनके विचार जड़ और निष्क्रिय हो चुके हैं।
“उठे जो बोल, बने वे शूल–शूल–शूल” – जब भी कोई सच्चाई बोलता है, वह कटु सत्य बनकर समाज में चुभने लगता है।
“बोल–कुम्भ–कुम्भ–कुम्भ बना धूल–धूल–धूल” – सच्चे शब्द भी अब व्यर्थ हो गए हैं, जैसे कुम्भों का मेला धूल में तब्दील हो गया हो।
“अवज्ञा ममता तनु उठा हो हार–हार।” – समाज अब इतना विवश हो गया है कि विरोध और प्रेम, दोनों ही हारते जा रहे हैं।
निष्कर्ष
यह पद्यांश दमनकारी सामाजिक व्यवस्था के विरुद्ध आवाज है। इसमें क्रांति, विद्रोह, व्यथा और शक्ति का सम्मिलन है। यह कविता नई कविता की चेतना, प्रयोगशीलता और सामाजिक जिम्मेदारी को दर्शाती है।