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विद्यापति पदावली में भक्ति और श्रृंगार का द्वंद्व किस रूप में प्रकट हुआ?

प्रस्तावना

विद्यापति मैथिली भाषा के महान कवि माने जाते हैं। उनकी ‘पदावली’ श्रृंगार और भक्ति रस का अद्भुत संगम है। उन्होंने अपने काव्य में राधा-कृष्ण के प्रेम को माध्यम बनाकर ईश्वर और आत्मा के बीच के संबंध को दर्शाया है। उनके काव्य में श्रृंगार की कोमलता और भक्ति की गहराई दोनों स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होती हैं। इस द्वंद्व ने उनके काव्य को विशेष पहचान दी है।

विद्यापति की काव्य परंपरा

विद्यापति (14वीं-15वीं शताब्दी) का संबंध भक्ति आंदोलन से था, परंतु उन्होंने अपने गीतों में श्रृंगार रस को विशेष स्थान दिया। उनके काव्य में नायक-नायिका के प्रेम संबंधों के माध्यम से भक्ति का रहस्योद्घाटन किया गया है।

श्रृंगार और भक्ति का द्वंद्व

विद्यापति के पदों में राधा-कृष्ण का प्रेम श्रृंगारिक प्रतीत होता है, परंतु उसका मूल भाव भक्ति होता है। यह द्वंद्व कई स्तरों पर देखा जा सकता है:

1. प्रेम के माध्यम से भक्ति

कृष्ण और राधा के प्रेम के रूप में आत्मा और परमात्मा के मिलन की अभिव्यक्ति है। राधा की तड़प, मिलन की कामना, वियोग की वेदना सभी में आध्यात्मिक प्रेम झलकता है।

2. लौकिक और अलौकिक का संगम

उनके पदों में भौतिक प्रेम और अध्यात्म का सुंदर समन्वय है। राधा-कृष्ण के लौकिक भावों के माध्यम से आध्यात्मिक तात्पर्य को उजागर किया गया है।

3. सगुण भक्ति और श्रृंगार रस

विद्यापति सगुण भक्ति परंपरा के कवि थे। उन्होंने श्रीकृष्ण को सजीव मानते हुए उनके साथ नायिका राधा का प्रेमचित्रण किया। यह प्रेम भक्ति का ही एक रूप है, जिसमें श्रृंगार की भाव-छाया विद्यमान है।

उदाहरण

“जोगियाक घर मोहन बाजे मधुर बंसुरिया
राधिके जियरा तरसे सुनि वेणु रुनझुनिया।”

इस पद में श्रृंगार की व्याकुलता है, पर यह प्रेम लौकिक न होकर परमात्मा के लिए आत्मा की लालसा को दर्शाता है।

भक्ति की गहराई

विद्यापति के काव्य में भक्ति की अभिव्यक्ति एक प्रेमिका के रूप में होती है, जो अपने प्रियतम (कृष्ण) की प्रतीक्षा करती है। यह प्रतीक्षा सांसारिक नहीं बल्कि आत्मिक स्तर की होती है।

श्रृंगार का सांकेतिक प्रयोग

श्रृंगार का उपयोग केवल सौंदर्य वर्णन या प्रेमालाप के लिए नहीं, बल्कि ईश्वर की महिमा को चित्रित करने के लिए भी किया गया है। राधा-कृष्ण के प्रेम की कथा में भक्त और भगवान का संबंध छिपा है।

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का मत

उन्होंने कहा था कि विद्यापति के काव्य में श्रृंगार एक माध्यम है, साध्य नहीं। उनका प्रेम आध्यात्मिक ऊँचाई लिए हुए है और भक्ति की दिशा में अग्रसर है।

निष्कर्ष

विद्यापति की पदावली में भक्ति और श्रृंगार का द्वंद्व एक सूक्ष्म एवं गूढ़ रूप में प्रकट होता है। राधा-कृष्ण के प्रेम के माध्यम से उन्होंने आत्मा और परमात्मा के मिलन की अनुभूति कराई है। यही द्वंद्व उनके काव्य को अनूठा और कालजयी बनाता है। भक्ति के माध्यम से श्रृंगार को और श्रृंगार के माध्यम से भक्ति को समझना विद्यापति के काव्य का मूल सौंदर्य है।

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