परिचय
‘विद्या’ शब्द का अर्थ होता है – ज्ञान, समझ, और वह बोध जिससे व्यक्ति सत्य को पहचान सके। भगवद्गीता में विद्या केवल शास्त्रों के ज्ञान तक सीमित नहीं है, बल्कि आत्मा, परमात्मा और उनके परस्पर संबंध को जानने की योग्यता को भी ‘विद्या’ कहा गया है। गीता का विद्या सम्बन्धी दृष्टिकोण व्यक्ति को आत्म-ज्ञान की ओर प्रेरित करता है।
गीता में विद्या का महत्व
- विद्या वह प्रकाश है जो अज्ञान के अंधकार को मिटाता है।
- यह व्यक्ति को सही और गलत के बीच भेद करने की क्षमता देती है।
- विद्या से विवेक उत्पन्न होता है, जिससे व्यक्ति धर्म का पालन कर पाता है।
विद्या का वास्तविक स्वरूप
गीता में कहा गया है कि केवल पुस्तकीय ज्ञान या सूचनाओं को जानना विद्या नहीं है, बल्कि:
- आत्मा के स्वरूप को जानना
- संसार की क्षणभंगुरता को समझना
- कर्म के महत्व को समझना
- ईश्वर में आस्था और भक्ति रखना
यह सभी तत्व मिलकर सच्ची विद्या का निर्माण करते हैं।
विद्या बनाम अविद्या
गीता में अविद्या को ही अज्ञान, मोह और भ्रम का कारण बताया गया है। जब व्यक्ति अपने शरीर को ही सब कुछ मानता है और आत्मा की वास्तविकता को नहीं समझता – तब वह अविद्या के प्रभाव में होता है।
विद्या उसे इससे मुक्त करती है और सत्य के मार्ग पर ले जाती है।
ज्ञानयुक्त विद्या
गीता के अनुसार ऐसी विद्या, जो ज्ञान (बुद्धि) से युक्त हो, ही कल्याणकारी है। वह व्यक्ति को कर्तव्य, सेवा और मोक्ष के मार्ग पर ले जाती है।
“नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्॥”
आधुनिक युग में विद्या की उपयोगिता
- आज के युग में केवल डिग्री या प्रमाण पत्र को विद्या मान लिया गया है, परंतु गीता हमें बताती है कि सच्ची विद्या वह है जो जीवन को श्रेष्ठ बनाए।
- जिस विद्या से अहंकार, क्रोध, हिंसा और लोभ बढ़े, वह विद्या नहीं, अविद्या है।
- जिस विद्या से शांति, प्रेम, सेवा और सत्य का विकास हो – वही सच्ची विद्या है।
निष्कर्ष
भगवद्गीता में विद्या को जीवन का मूल स्तंभ माना गया है। यह केवल सूचनाओं का भंडार नहीं, बल्कि एक जीवन-दृष्टि है। जो विद्या हमें आत्मा, परमात्मा, धर्म और सेवा के मार्ग पर ले जाए, वही सच्ची विद्या है।
