प्रस्तावना
कबीर हिंदी साहित्य के भक्ति काल के प्रमुख कवियों में से एक हैं। वे समाज सुधारक, संत और विचारक थे। मध्य युग में जब समाज धार्मिक आडंबर, जातिवाद और सामाजिक विषमता से ग्रस्त था, तब कबीर ने अपने दोहों और पदों के माध्यम से एक प्रगतिशील चेतना का संचार किया। इस निबंध में हम कबीर को मध्य युग के प्रगतिशील रचनाकार के रूप में मूल्यांकित करेंगे।
मध्य युग की पृष्ठभूमि
मध्य युग में भारत में सामाजिक ढांचा रूढ़िवादी और विभाजनकारी था। धर्म के नाम पर पाखंड, जाति भेद, स्त्री शोषण, और धार्मिक कट्टरता चरम पर थी। ऐसे समय में कबीर का काव्य समाज को एक नई दिशा देने वाला साबित हुआ।
कबीर की प्रगतिशीलता के प्रमुख पक्ष
1. जातिवाद और छुआछूत का विरोध
कबीर ने जातिवाद को समाज के विघटन का कारण बताया। उन्होंने कहा कि इंसान का मूल्य कर्मों से तय होता है, न कि जन्म से।
“जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान।
मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान॥”
2. धर्म के आडंबरों पर प्रहार
कबीर ने हिंदू और मुस्लिम दोनों धर्मों के पाखंडों की आलोचना की। उन्होंने धार्मिक कर्मकांडों को निरर्थक बताया और सच्ची भक्ति को ही ईश्वर प्राप्ति का मार्ग बताया।
“माला फेरत जुग गया, फिरा न मन का फेर।
कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर॥”
3. स्त्री के प्रति दृष्टिकोण
कबीर ने स्त्री को मात्र भोग्या न मानकर उसे मानवता की दृष्टि से देखा। उन्होंने नारी को आत्मा के स्तर पर पुरुष के समकक्ष बताया।
4. सच्ची भक्ति का संदेश
कबीर के अनुसार भक्ति का मार्ग सरल, व्यक्तिगत और आत्मिक होता है। उन्होंने निर्गुण भक्ति को अपनाया और कहा कि ईश्वर कोई मूर्ति नहीं, वह अंतरात्मा में है।
5. भाषा और शैली की सहजता
कबीर ने साधारण जनता की भाषा में बात की — सधुक्कड़ी, अवधी, ब्रज आदि के मिश्रण से उन्होंने ऐसा लोकभाषा काव्य रचा जो जनमानस से सीधे जुड़ता है।
कबीर की आलोचना
कुछ रूढ़िवादी विचारधाराओं ने कबीर की सोच को अराजक और धार्मिक व्यवस्था के लिए खतरा माना। परंतु उनकी आलोचनाओं के बावजूद कबीर का योगदान समाज को जागरूक और मानवीय बनाने में अहम रहा है।
कबीर की प्रासंगिकता
आज के समय में भी कबीर की वाणी उतनी ही प्रासंगिक है। सामाजिक असमानता, धार्मिक उन्माद और जातीय भेदभाव की स्थितियों में कबीर की शिक्षा मानवतावादी दृष्टिकोण को प्रोत्साहित करती है।
निष्कर्ष
कबीर न केवल एक भक्त कवि थे, बल्कि एक सामाजिक क्रांतिकारी भी थे। उनके विचारों में गहन प्रगतिशीलता थी जो उन्होंने अपने काव्य के माध्यम से जन-जन तक पहुँचाई। मध्य युग में जब संकीर्णता और रूढ़ियाँ समाज पर हावी थीं, तब कबीर ने निर्भीक होकर समाज के हर हिस्से को प्रश्नों के कटघरे में खड़ा किया। इस दृष्टि से उन्हें मध्य युग का एक सशक्त और प्रगतिशील रचनाकार माना जा सकता है।