गीता के अनुसार देवी शक्तियों की अवधारणा को संक्षेप में स्पष्ट कीजिए।

परिचय

भगवद्गीता एक सार्वभौमिक ग्रंथ है जिसमें आत्मा, परमात्मा, प्रकृति और शक्ति के बीच के संबंध को स्पष्ट किया गया है। यद्यपि गीता में सीधे-सीधे देवी देवताओं की पूजा की चर्चा कम है, लेकिन उसमें देवी शक्तियों की अवधारणा को गहराई से समझाया गया है। गीता के अनुसार सृष्टि में व्याप्त हर शक्ति, हर ऊर्जा, एक ही परमात्मा की अभिव्यक्ति है। देवी शक्तियाँ उसी परमात्मा की विविध शक्तियों का रूप हैं।

देवी शक्ति की परिभाषा

‘देवी शक्ति’ वह ऊर्जा है जो सृष्टि का सृजन, पालन और संहार करती है। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं को समस्त विभूतियों का स्रोत बताया है, जिसमें शक्ति भी एक है।

गीता में शक्ति का स्वरूप

गीता अध्याय 7 और 10 में विशेष रूप से शक्ति की चर्चा की गई है। श्रीकृष्ण कहते हैं:

“तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीति पूर्वकम्।
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते॥”
– गीता 10.10

इस श्लोक में भगवान कहते हैं कि जो भक्त प्रेमपूर्वक मेरी भक्ति करते हैं, मैं उन्हें शक्ति और बुद्धि प्रदान करता हूँ जिससे वे मुझे प्राप्त कर सकें।

प्रकृति और शक्ति

  • गीता में प्रकृति को ‘माया’ कहा गया है और भगवान की शक्ति का ही रूप माना गया है।
  • प्रकृति त्रिगुणात्मक (सत्व, रज, तम) है – ये तीनों गुण ही देवी शक्तियों की भिन्न अभिव्यक्तियाँ हैं।
  • सत्व – सरस्वती, रज – लक्ष्मी, तम – काली/दुर्गा से संबंधित माने जाते हैं।

शक्ति की उपासना

गीता में कहा गया है कि जो भी किसी भी देवी या देवता की श्रद्धापूर्वक पूजा करता है, वह वास्तव में भगवान कृष्ण को ही पूजता है:

“यो यो यां यां तनुं भक्त: श्रद्धयार्चितुमिच्छति।
तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम्॥”
– गीता 7.21

शक्ति और भक्ति का संबंध

  • भक्ति से देवी शक्तियाँ प्रसन्न होती हैं।
  • शक्ति का प्रयोग तभी सार्थक होता है जब वह भक्तिपूर्ण हो।
  • गीता के अनुसार, जो भक्त एकनिष्ठ होकर परमात्मा की शरण में आता है, उसे दिव्य शक्तियाँ स्वतः प्राप्त हो जाती हैं।

आधुनिक परिप्रेक्ष्य

आज के युग में देवी शक्तियाँ आत्मबल, ज्ञान, नारी-सशक्तिकरण, प्रकृति-संरक्षण जैसी अवधारणाओं से भी जुड़ती हैं। गीता की दृष्टि से देखें तो हर मनुष्य में दिव्य शक्तियाँ विद्यमान हैं – आवश्यकता है उन्हें जागृत करने की।

निष्कर्ष

गीता में देवी शक्तियों की अवधारणा किसी बाहरी शक्ति की पूजा तक सीमित नहीं है, बल्कि यह आंतरिक जागरूकता और आत्मबोध की ओर ले जाती है। भगवान कृष्ण के अनुसार, जो भी शक्ति है – वह उन्हीं से उत्पन्न है और उन्हीं में समाहित है। देवी शक्तियों की सच्ची उपासना ज्ञान, भक्ति और कर्म के संतुलन से होती है।

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