पद्यांश
विषमता की पीड़ा से व्याकुल
हो रहा संचित विषम समय;
यही दुख पिघल निकला है स्वप्न
मानव समाज बना जो महामय।
जिसमें समरसता का अभाव,
अपनत्व नहीं केवल जातीय तिरस्कार,
व्यथा से नीति बहलती केवल
विविध स्वरूप लिये गुण गुनगुनाता।
संदर्भ
यह पद्यांश नई कविता शैली का उदाहरण है जिसमें कवि समाज में व्याप्त विषमता, वर्गभेद और जातिगत भेदभाव को उजागर करता है। यह पद्यांश सामाजिक चेतना, समरसता की कमी और मानवता की पीड़ा पर केंद्रित है।
प्रसंग
यह कविता उस समय के सामाजिक परिदृश्य को प्रस्तुत करती है जब समाज में जातीय भेदभाव, सामाजिक विषमता और असमानता अपनी चरम सीमा पर थी। कवि समाज की इस पीड़ा को स्वर देता है और सुधार की आशा प्रकट करता है।
व्याख्या
“विषमता की पीड़ा से व्याकुल हो रहा संचित विषम समय” – यह पंक्ति सामाजिक असमानता की गहराई को दर्शाती है। समय स्वयं इस विषमता को सहन करते-करते अब व्याकुल हो उठा है।
“यही दुख पिघल निकला है स्वप्न, मानव समाज बना जो महामय” – यह पीड़ा समाज को एक नए स्वप्न की ओर ले जाती है। कवि को आशा है कि समाज में बदलाव आएगा और वह महान बनेगा।
“जिसमें समरसता का अभाव, अपनत्व नहीं केवल जातीय तिरस्कार” – वर्तमान समाज में एकता, भाईचारा और प्रेम की कमी है। इसके स्थान पर जातिवाद, तिरस्कार और वैमनस्य है।
“व्यथा से नीति बहलती केवल, विविध स्वरूप लिये गुण गुनगुनाता” – नीति और नैतिकता केवल पीड़ा से प्रभावित हो रही है। गुण और अच्छाइयाँ अब केवल सतही बनकर रह गई हैं, जिनका प्रभाव वास्तविक जीवन में कम है।
निष्कर्ष
इस पद्यांश के माध्यम से कवि ने समाज की असमानताओं, जातीय भेदभाव और सामूहिक पीड़ा को उजागर किया है। यह एक सामाजिक यथार्थ का चित्रण है जो पाठक को सोचने पर विवश करता है कि हमें किस दिशा में जाना चाहिए। कविता में सुधार की आशा और परिवर्तन की आकांक्षा भी समाहित है।