कर्म की समानभाव स्थिति पर लेख लिखिए।

परिचय

भगवद्गीता में कर्म को अत्यंत महत्वपूर्ण बताया गया है। गीता का मूल संदेश है – कर्म करना, लेकिन उसमें समभाव रखना। इसका अर्थ है कि हम अपने हर कार्य को निष्काम भाव से करें और उसके फल को लेकर चिंतित न हों। इस लेख में हम “कर्म की समानभाव स्थिति” का गहराई से विश्लेषण करेंगे।

समानभाव क्या है?

समानभाव का अर्थ है – जीवन की सभी परिस्थितियों में मन को संतुलित बनाए रखना। सुख-दुख, लाभ-हानि, जय-पराजय – इन सभी में जो व्यक्ति शांत और स्थिर रहता है, वही समानभाव को प्राप्त करता है।

गीता में समानभाव की शिक्षा

  • श्रीकृष्ण ने अर्जुन को बताया – “समत्वं योग उच्यते।” अर्थात् समत्व ही योग है।
  • कर्म करते समय मन में न मोह हो, न घृणा, न इच्छा हो, न द्वेष – यह समानभाव की स्थिति है।

क्यों आवश्यक है समानभाव?

  • मानसिक शांति: समानभाव से मन स्थिर होता है और व्यक्ति चिंता मुक्त रहता है।
  • सही निर्णय: जब मन स्थिर होता है तब व्यक्ति सही निर्णय ले सकता है।
  • धर्म पालन: समभाव रखने वाला व्यक्ति अपने धर्म और कर्तव्यों से विचलित नहीं होता।

कर्म और फल का संबंध

गीता में कहा गया है – “कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।” अर्थात् तुम्हारा अधिकार केवल कर्म करने में है, फल पर नहीं। जब हम फल की इच्छा से मुक्त होते हैं, तभी हम समानभाव की ओर अग्रसर होते हैं।

समानभाव प्राप्त करने के उपाय

  • ध्यान और योग: मानसिक संतुलन के लिए नियमित ध्यान आवश्यक है।
  • स्वधर्म का पालन: अपना कर्तव्य निष्ठा से निभाना, बिना अपेक्षा के।
  • सत्संग: अच्छे लोगों की संगति से विचार शुद्ध होते हैं।
  • ज्ञान: आत्मा, परमात्मा और कर्म के सही ज्ञान से मोह दूर होता है।

उदाहरण – अर्जुन का परिवर्तन

महाभारत युद्ध से पहले अर्जुन मोह और भावनाओं से प्रभावित होकर अपने कर्तव्य से पीछे हट जाते हैं। लेकिन गीता के उपदेश के बाद वह समानभाव की स्थिति को प्राप्त करते हैं और युद्ध करते हैं।

आधुनिक जीवन में प्रासंगिकता

आज के तनावपूर्ण जीवन में यदि हम कर्म करते समय समानभाव रखें, तो मानसिक शांति, संतुलन और आत्म-नियंत्रण प्राप्त कर सकते हैं। यह भाव ऑफिस, घर, समाज हर जगह उपयोगी है।

निष्कर्ष

कर्म की समानभाव स्थिति गीता का मूल संदेश है। यह न केवल आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग है, बल्कि एक संतुलित और सफल जीवन जीने का भी आधार है। जब हम बिना आसक्ति के कर्म करते हैं और हर परिस्थिति में समभाव रखते हैं, तब हम सच्चे अर्थों में कर्मयोगी बनते हैं।

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