परिचय
भगवद्गीता में कर्म और भक्ति का जो समन्वय प्रस्तुत किया गया है, उसमें ‘निष्कामता’ और ‘निष्ठा’ की अवधारणाएँ अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को उपदेश देते हुए बार-बार यह स्पष्ट किया है कि केवल कर्म करना पर्याप्त नहीं, बल्कि उसे निष्काम भाव और निष्ठा के साथ करना ही सच्चा योग है।
निष्कामता की परिभाषा
‘निष्काम’ शब्द का अर्थ है – बिना कामना के। गीता के अनुसार निष्काम कर्म वह है जो फल की इच्छा के बिना, केवल कर्तव्य समझकर किया जाता है। जब कोई व्यक्ति अपने कर्म को ईश्वर को अर्पण करके करता है, तो वह निष्काम कर्म कहलाता है।
गीता में निष्कामता का महत्व
- “कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन” – इस श्लोक में निष्कामता का स्पष्ट संदेश है।
- निष्काम कर्म से मन में शांति आती है, अहंकार दूर होता है और व्यक्ति धर्म के मार्ग पर चलता है।
- ऐसा कर्म व्यक्ति को बंधन से मुक्त करता है और आत्मज्ञान की ओर ले जाता है।
निष्ठा की परिभाषा
निष्ठा का अर्थ है – पूरी ईमानदारी, समर्पण और एकाग्रता के साथ अपने कर्तव्यों का पालन करना। गीता में निष्ठा का संबंध केवल भक्ति से नहीं, बल्कि हर प्रकार के कर्म से है।
गीता में निष्ठा का स्वरूप
- श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो व्यक्ति अपने धर्म, कार्य और भक्ति में अडिग रहता है, वही सच्चा योगी है।
- निष्ठावान व्यक्ति को किसी प्रकार का भय या संशय नहीं होता।
- वह हर परिस्थिति में धैर्य और आत्मविश्वास बनाए रखता है।
निष्कामता और निष्ठा का संबंध
- दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। निष्काम भाव से कर्म तभी संभव है जब व्यक्ति में निष्ठा हो।
- निष्ठा व्यक्ति को अपने पथ पर स्थिर रखती है और निष्कामता उसे मुक्त करती है।
- एक सच्चा साधक वही है जो निष्ठा से कर्म करे और निष्काम भाव से उसका फल त्याग दे।
आधुनिक जीवन में प्रासंगिकता
आज की भागदौड़ भरी जिंदगी में लोग कर्म करते हैं परंतु फल की चिंता में उलझे रहते हैं। गीता की निष्कामता की शिक्षा उन्हें मानसिक शांति प्रदान कर सकती है। निष्ठा, चाहे अध्ययन में हो, कार्य में हो या संबंधों में – सफलता का मूल मंत्र है।
निष्कर्ष
गीता में निष्कामता और निष्ठा को जीवन जीने की कला के रूप में प्रस्तुत किया गया है। ये दोनों गुण व्यक्ति को सच्चे अर्थों में कर्मयोगी बनाते हैं और उसे आत्मिक एवं सामाजिक उन्नति की ओर ले जाते हैं।
